14 November 2024

बिना भाषा के संस्कृति की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती, संस्कृति स्वतः ही विकसित होती है और धीरे-धीरे सभ्यता का निर्माण करती है

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हिन्दी का अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य*

— हेमचन्द्र सकलानी

किसी भी भाषा के लिए उसकी लिपि का होना परम आवश्यक होता है। जिस तरह किसी संस्कृति के बिना कोई सभ्यता नहीं पनप सकती है, उसी तरह बिना लिपि के बिना कोई भाषा नहीं विकसित हो सकती है, नहीं पल्लवित पुष्पित हो सकती है, ना किसी प्रकार की कोई संस्कृति जन्म ले सकती है। लिपि भाषा की आत्मा होती है। लिपि के कारण ही भाषा सुंदर लोकप्रिय और कालजयी बनती है। लिपि का उच्चारण ही भाषा को जन्म देता है। हिंदी की लिपि देवनागरी है और महात्मा गांधी ने ही नहीं अनेक विद्वानों ने संसार की सभी लिपियों में देवनागरी को सर्वोत्तम लिपि माना है। यदि लिपि ना होती तो अपने देश के स्वर्णिम युग से हम कभी परिचित न हो पाते। संस्कृति अनेक चीजों से मिलकर बनती है अनेक बातों क्रियाकलापों का समूह होती है। लेकिन बिना भाषा के संस्कृति की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। संस्कृति स्वतः ही विकसित होती है और धीरे-धीरे सभ्यता का निर्माण करती है भाषा के साथ साथ। जीवन में संघर्ष के लिए, विकसित होने के लिए, संस्कृति की, भाषा की जरूरत होती है
जिस तरह संस्कृति, जितनी सुंदर होगी सभ्यता उससे भी सुंदर विकसित होती है। किसी ने कहा है -“जिस तरह रंग और खुशबू फूल का परिचय देते हैं उसी तरह हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता और भाषा का परिचय देती है, और भाषा और संस्कृति ही बताते हैं कि हमारा समाज कितना सुंदर सभ्य था और है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि फूल के रंग, फूल की खुशबू ही उसका सांस्कृतिक परिचय देते हैं।भाषा की संस्कृति और संस्कृति की भाषा ही सभ्यता कहलाती है। इसी तरह समाज की पहचान उसकी भाषा उसकी संस्कृति से होती है। कह सकते हैं फूल का रंग उसकी संस्कृति है और फूल की खुशबू उसकी भाषा है और दोनों मिलकर उसकी सभ्यता बनते हैं।” सत्य भी है भाषा से कटना संस्कृति से कटना जैसा होता है। वह संस्कृति ही होती है जो भाषा को समृद्ध बनाती है और फिर दोनों मिलकर समाज को समृद्ध करते हैं, आगे बढ़ाते हैं। समाज की भाषा ही उसकी संस्कृति होती है।”
हिंदी आज देश की हर जाति धर्म के लोगों की वह भाषा है जो कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ रण से सुदूर अरुणाचल तक बोली और समझी जाती है।इसी का परिणाम है कि हर व्यक्ति देश के एक कोने से दूसरे कोने तक, किसी भी क्षेत्र में आसानी से विचरण कर सकता है। हिंदी के बुद्धिजीवी या सरकार भले ही इसका श्रेय लें परंतु अगर बोलचाल की हिंदी की बात करें तो जिसने देश को एक सूत्र में बांधा है, उसमें देश के मजदूरों के, कुलियों के, और फिल्मों के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस दृष्टि से देश को उसके नागरिकों को आपस में जोड़ने का एकता के सूत्र में पिरोने का जो कार्य हिंदी ने किया वह किसी अन्य ने नहीं किया। भारत का स्वतंत्रता संग्राम इसका निर्विवाद उदाहरण रहा है। अगर आज हिंदी को जहाँ कहीं भी संघर्ष करना पड़ रहा है तो हमारी बेईमानी नीति, स्वार्थपरक, भेदभाव, पक्षपाती रवैया, साथ ही हिंदी हिंदुस्तानी का झगड़ा इसका प्रमुख कारण रहा है। आज हिंदी विश्व की दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा कही जाती है जो भारत की राजभाषा है। डॉक्टर परमानंद पांचाल राष्ट्रपति के पूर्व भाषा सलाहकार के शब्दों में “हिंदी मात्र एक भाषा ही नहीं है हमारी भारतीय संस्कृति की सबसे समर्थ समवाहिका भी है। जिस प्रकार किसी बच्चे के स्वास्थ्य, शारीरिक, मानसिक विकास के लिए मां का दूध आवश्यक होता है उसी तरह किसी भी राष्ट्र के केवल नागरिकों के लिए ही नहीं उस राष्ट्र की उन्नति विकास के लिए उसकी समृद्ध भाषा का होना भी बहुत जरूरी होता है।”
आज हिंदी भारत की सीमाओं से निकलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना परचम फैला रही है। आज सारा विश्व हिंदी की सरलता, सहजता, मृदुलता से प्रभावित है। हिंदी आज विश्व की श्रेष्ठ भाषाओं, समृद्ध भाषाओं में से एक है। विश्व के अलग देशों में इसके प्रचार प्रसार के कार्य, अंतरराष्ट्रीय हिंदी सेमिनारों तथा विदेशी लेखकों, साहित्यकारों, विशेषज्ञों ने इसे अंतरराष्ट्रीय स्वरुप दान किया। स्वतंत्रता के पूर्व भारत के निर्धन गरीब मजदूर रोजगार की तलाश में जो विदेश गए और वहाँ बस गए, उन्होंने अपनी भाषा को अपनाए रखा, फिर उनकी नई पीढ़ी ने इसके प्रति अपना मोह जिंदा रखकर हिंदी की लोकप्रियता को उसके शिखर तक पहुंचाया, जो हमें आज दिखाई पड़ता है। क्योंकि विश्व के अधिकांश देश इंग्लैंड के उपनिवेश के अंतर्गत आते थे और भारत भी उसके अधीन था यहां के लोगों का स्वाभाविक विस्थापन अंग्रेजों के हित में उन देशों की ओर हुआ। उन्होंने वहां की बोली भाषा के शब्दों को अपनी सहजता के लिए हिंदी से जोड़ा।जिससे हिंदी को और भी लोकप्रिय होने का अवसर मिला। अनेक विदेशी साहित्यकारों, लेखकों, इतिहासकारों ने हिंदी के प्रति लगाव होने के कारण, हिंदी से जुड़ने के कारण, हिंदी की ही नहीं अपनी भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई।
अपनी ताशकंद, समरकंद, बैंकॉक, पटाया, कम्बोडिया, मॉरीशस, बाली, सिंगापुर, लंदन, हॉलैंड, ब्रुसेल्स, पेरिस,ज्यूरिख की यात्राओं में वहां के गाईड्स को हिंदी में अच्छी तरह जब बात करते देखा तो अनुभव हुआ यदि ईमानदारी से हम हिंदी के लिए कार्य करते तो हिंदी को विश्व की सबसे महत्वूर्ण भाषा बनने में देर न लगती।
आज विश्व के अनेक देशों के विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा और साहित्य की शिक्षा दी जा रही है जिसमें वहां के विद्यार्थी पर्याप्त रुचि ले रहे हैं। अनेक स्नातकोत्तर के बाद शोध कार्य कर पीएचडी की डिग्री हासिल कर रहे हैं। अनेक देशों के रेडियो स्टेशन अपने केंद्र से, वहां के दूरदर्शन केंद्र अपने केंद्र से हिंदी के कार्यक्रम प्रचारित प्रसारित कर रहे हैं और हिंदी के प्रचार-प्रसार में अहम योगदान दे रहे हैं। यहां पर यदि विश्व के सारे देशों के विश्वविद्यालयों, विदेशी साहित्यकारों, प्रवासी साहित्यकार जो हिंदी के लिए कार्य कर रहे हैं उसके प्रचार-प्रसार में अपना योगदान दे रहे हैं यदि उनके नामों का उल्लेख किया जाए तो लिस्ट बहुत लंबी हो जाएगी। इस पर भी संयुक्त राष्ट्रसंघ में अंग्रेजी को, स्पेनिश, फ्रेंच, चीनी, रूसी को तो मान्यता मिली हुई है पर हिंदी को नहीं। भाषा को समृद्ध लोकप्रिय बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आवश्यक है की हिंदी के साहित्य का अधिक से अधिक विश्व की दूसरी भाषाओं में अनुवाद हो। इस भूमंडलीकरण के दौरे में भी हिंदी भाषा के अनेक सरकारी विद्वान अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी में अपनी बात कहने को प्राथमिकता देते हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी भाषा की समृद्धि के लिए, उसकी निरंतरता को बनाए रखने के लिए, उसके अंतरराष्ट्रीयकरण के लिए आवश्यक है कि हमारी भाषा में समरसता बनी रहे व क्लिष्टता से परहेज रहे। विश्व के अनेक देशों में अलग-अलग भाषाएं हैं लेकिन वहां अनुवाद की व्यापकता के कारण, अनुवाद की सरल प्रक्रिया के कारण वहां के लोग एक दूसरे के विचारों को आसानी से जान पाते हैं। यह वह प्रक्रिया है जिससे सब एक दूसरे के निकट आते हैं। दरअसल ट्रांसलेट का दूसरा अर्थ भावों की मूल रूप की दूसरी भाषा में प्रस्तुति होती है। लेकिन भावों का मूल रूप यथावत रहना चाहिए। हिंदी भाषा में दुनिया भर की भाषाओं के शब्द पहले से ही निहित हैं। अतः भारतीय विभिन्न भाषाओं के शब्दों का भी हिंदी भाषा में स्वागत होना चाहिए। इससे हिंदी और भी समृद्ध होगी और उसके अंतरराष्ट्रीयकरण में आसानी होगी। विश्व की अनेक भाषाओं में हिंदी के शब्द हमें देखने को मिलते हैं, आज कंप्यूटर का युग है इसका ईमेल और फेसबुक पर उपयोग कर हिंदी का अंतरराष्ट्रीयकरण और भूमंडलीकरण और भी आसान हो जाएगा, यदि हम अपनी भाषा के प्रति ईमानदारी से कार्य करें। हिंदी को अगर संयुक्त राष्ट्रसंघ में जगह दिलानी है तो, विश्व भाषा के रूप में स्थापित करना है तो,हमारे देश के लोगों को क्षेत्रीय बोलियों को भाषा बनाने की अपनी मनोवर्ती को त्यागना होगा, छोड़ना होगा इस पर राजनीति करना बंद करना होगा यदि विश्व भाषा के रूप में स्थापित करना है तो। यूं तो देश में अनेक क्षेत्रीय बोलियां प्राचीन काल से ही अस्तित्व में रही हैं लेकिन वह हिंदी है जिसने देश को एकता के सूत्र में बांध कर रखा है और देश के एक कोने से दूसरे कोने में बोली जाती है। अन्य किसी बोली भाषा में इतना दम खम नहीं है। भारत का स्वतंत्रता संग्राम इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है। इस पर भी विश्व में शायद हमारा ही देश ऐसा है जिसकी कोई सर्वमान्य राष्ट्रभाषा नहीं है। हम हम विश्व में या यूनेस्को में अपनी सारी बोली, भाषाओं को स्थापित नहीं कर सकते जब हिंदी को ही नहीं कर सके तो अन्य की तो बात ही और है। लेकिन हिंदी से हम पूरे विश्व मे अपना प्रतिनिधित्व करा सकते हैं। हिंदी भारत की अभिव्यक्ति है अर्थात आत्मा है हिंदी।
जहाँ, कभी हर जगह देश में फारसी अंग्रेजी का बोलबाला था वहाँ आज हिंदी अपना परचम लहरा रही है। भूमंडलीकरण के इस दौर में बाजारवाद के कारण हिंदी को प्रचार प्रसार का व्यापक अवसर मिला, विश्व के सारे देश उसके महत्व को स्वीकारने लगे हैं सिर्फ हमें छोड़कर। आज आवश्यकता है कि हम क्षेत्रीय बोली भाषाओं के झगड़े भूल कर क्षुद्र राजनीति से ऊपर उठकर हिंदी को विश्व में स्थापित करने का प्रयास करें क्योंकि हिंदी भाषा से ही विश्व में हमारी और हमारे देश की सबसे सुंदर पहचान होगी।

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