गढ़वाली के सशक्त प्रयोग से नेगी जी ने गढ़वाली भाषा को जीवंत बनाया
पुस्तक समीक्षा
सावन की रिमझिम में नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों की इंद्रधनुषी छटा ।
पुस्तक – कल फिर जब सुबह होगी
लेखक – ललित मोहन रयाल
दिनेश शास्त्री
देहरादून —उत्तराखंड के प्रख्यात लोकगायक, कवि, दार्शनिक और संगीतकार नरेंद्र सिंह नेगी ने अपने विभिन्न गीत संग्रह यथा – तेरी खुद तेरो ख्याल, तुम दगड़ी ये गीत राला, अब जबकि, गाण्यूं की गंगा स्याण्यूं का समोदर, मुट्ट बोटिक रख और खुचकंडी में उत्तराखंड के लोकजीवन के सभी पहलुओं को समाज के सामने परोसा। अपने जीवन की ढाई बीसी यानी पूरे पांच दशक अपनी धरती के गीत संगीत को समर्पित करने वाले कालजयी रचनाकार उत्तराखंड के गौरव नरेंद्र सिंह नेगी की उक्त पुस्तकों में से चुनिंदा एक सौ एक (एक तरह से शगुन) रचनाओं का भाष्य पांडित्यपूर्ण ढंग से वरिष्ठ आईएएस अधिकारी ललित मोहन रयाल ने किया है। विनसर प्रकाशन देहरादून ने इस ग्रंथ को “कल फिर जब सुबह होगी” शीर्षक से प्रकाशित किया है। यशस्वी रचनाकार नरेंद्र सिंह नेगी निसंदेह इस धरती को संवेदनाएं और सामर्थ्य सौंपने वाले शिखर पुरुष हैं। गढ़वाली के सशक्त प्रयोग से नेगी जी ने गढ़वाली भाषा को जीवंत भी बनाया है। उनका उदय ऐसे कालखंड में हुआ जब आंचलिक गीत लेखन और गायकी संक्रमण काल से गुजर रही थी। इस कारण वे उत्तराखंड की संस्कृति के रेनेसां (पुनर्जागरण) के प्रतीक भी बन गए हैं। नरेंद्र सिंह नेगी के गढ़वाली भाषा और संस्कृति के रचना कर्म के पांच दशक पूरे होने पर हिमालय की अनुगूंज को दस्तावेज की शक्ल में प्रस्तुत करने का अनुपम कार्य कोई चितेरा ही कर सकता है और ललित मोहन रयाल ने यह अनूठा कार्य नहीं बल्कि विशिष्ट अनुष्ठान कर लोक की बहुत बड़ी सेवा की है।
इसमें दो राय नहीं हो सकती कि नरेंद्र सिंह नेगी के लिए उत्तराखंड पहली और अंतिम प्राथमिकता है। यहां की धरती, प्रकृति, लोक जीवन के विविध रंग, यहां के लोगों खास कर बेटी बहुओं के दुख दर्द, हर्ष -उल्लास और यहां तक कि समाज के अंतर्विरोधों को बेहद बारीक किंतु पैनी दृष्टि से देख कर उन्हें लाजवाब तरीके से प्रस्तुत करने का हुनर तो नेगी जी पास ही है। बहुत कम लोग जानते होंगे, जब नरेंद्र सिंह नेगी महज 19 साल के थे, तब 1968 में भाषा आंदोलन हुआ था। उस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण उन्हें 65 दिन बिजनौर सेंट्रल जेल में बिताने पड़े थे और तब से आज जबकि वे 75 वर्ष पूर्ण कर रहे हैं तो बड़ी मुस्तैदी के साथ लोकभाषा आंदोलन के अग्रणी ध्वजवाहक बने हुए हैं। उनकी रचनाओं में लोक रस, गंध और स्पर्श की अनुभूतियां इस कदर अटूट हैं जैसे मधुमक्खियों के छत्ते में शहद। एक दूजे के बिना सहचर्य और अस्तित्व संभव ही नहीं है। नेगी जी ऐसे पारंगत रचनाकार हैं जो शब्दों से खेलते हुए अपनी लोकभाषा का चमत्कार स्थापित करते हैं। नेगी जी उत्तराखंड के पहले गीतकार हैं, जिन्होंने अपनी धरती के गीतों, धरती की सौंधी महक अपने गीतों के जरिए सात समंदर पार तक बिखेरी है। अपने लोक की परम्परा, संस्कृति, मूल्य के साथ अन्याय, राजनीतिक विकृति और समसामयिक ज्वलंत मुद्दे हमेशा उनके गीतों के केंद्र में रहे हैं। वे एकमात्र ऐसे गीतकार हैं जिनके गीतों ने कई बार सत्ता प्रतिष्ठान को असहज ही नहीं किया बल्कि उनके गीतों की ताकत से सत्ताएं भी बदली हैं।
कहना न होगा कि उत्तराखंडी लोक संस्कृति, समाज और लोक साहित्य को समर्पित एक विराट और विशिष्ट व्यक्तित्व के रचना संसार की समग्र रूप से मीमांसा करना कतई सहज कार्य नहीं था, इसे तो ललित मोहन रयाल जैसा लोक संचेतना का कोई चितेरा व्यक्ति ही कर सकता था और उन्होंने यह कर दिखाया है। कई बार ऐसा प्रतीत होता है जैसे ग्रंथ में चुने गए हर गीत को रयाल जी ने खुद बड़ी शिद्दत के साथ जिया हो। बड़ी कोमल भावनाओं के साथ उन्होंने सरल व्याख्या के साथ गीत का भाव पाठक तक पहुंचाने का काम बड़े मनोयोग से किया है।
उत्तराखंड की लोक संस्कृति की धड़कन नरेंद्र सिंह नेगी जी के 75वें वर्ष प्रवेश पर किया गया यह अनुष्ठान निसंदेह बेहद श्रमसाध्य और अद्भुत कार्य है। आगामी 12 अगस्त को श्री नेगी के जन्मदिन पर इस ग्रंथ का बड़े समारोह में लोकार्पण होगा। ललित मोहन रयाल ने पहाड़ की चोटी से “धै” लगाई है कि आओ! अपने लोक को समझो, माटी की महक महसूस करो और अपने संस्कारों से जुड़े रहो। कदाचित “कल जब फिर सुबह होगी” के प्रकाशन का उद्देश्य भी यही है। इस क्रम में एक प्रसंग उद्धृत करना समीचीन होगा। एक बार नरेंद्र सिंह नेगी देहरादून के रेंजर ग्राउंड में प्रस्तुति देते हुए समाज को मद्यपान के दुष्प्रभावों को देखते हुए आह्वान कर रहे थे कि इस बुराई को त्याग दें, उसी दौरान मंच के बाईं ओर युवकों का बड़ा समूह थिरकते हुए नृत्य करने लगा। गीत था – “दारु बिना यख मुक्ति नी”। यानी शोक गीत पर भी उत्सव मनाने की प्रवृत्ति गीत के भावों को न समझ पाने के कारण ही परिलक्षित हो रही थी। इसी प्रवृत्ति को दूर करने के लिए नेगी जी की रचनाओं के गूढ़ भावों को सरल शब्दों में प्रस्तुत करने का स्तुत्य प्रयास किया है।
श्री रयाल ने “कल फिर सुबह होगी” ग्रंथ में नेगी जी रचना संसार को आठ वर्गों में विभक्त किया है। पहला भाग प्रकृति, परम्परा और परिवेश से जुड़े गीतों की व्याख्या है, दूसरे भाग में ऋतु गीत, पर्व और त्यौहार, तीसरे में श्रृंगार, सौंदर्य, प्रणय आकर्षण के गीत हैं, चौथे में विरह वियोग, वेदना और व्यथा, पांचवें में पलायन, प्रवास और विस्थापन से संबंधित गीत, छ्ठे में आह्वान गीत, सातवें में समस्या, संक्रमण और उहापोह तथा अंतिम आठवें अध्याय में लोरी, मनुहार, आशीष और नसीहत से संबंधित कुल 101 गीतों की बेहद सरल व्याख्या की है।
पहले अध्याय में जौ जस देई, घाम, अहा!, ठंडो रे ठंडो, मोटर चली, छुंयाल, बखरा हर्ची गैनी, तीलू बाखरी, नयु नयू ब्यो, दादा अर ह्यूंद, ग्यों जौऊकि दौऊं, समदौला का द्वी दिन, औए लछि घौर, बेटी ब्वारी और रूमक जैसे सदाबहार गीतों की व्याख्या है। दूसरे अध्याय में बसंत, बसंत ऐगे, कै बाटा ऐली, ऋतु चैत की, सौण, बर्खा, बरखा रिसाड़, बारामासा, होरी ऐगै, और ऐगे बग्वाल जैसे गीतों को वर्गीकृत किया गया है। तीसरे अध्याय में कख देखि होली, बांद, रुपकि झौल, त्वे बिना, मिन बंडयूं क्या कन, क्या जि बोलूं, कनि होली, क्वी त बात होली, को होलु वो, गाणि, दूर चली जौंला, परसि देखि, कुछ हौरी छई, सुपिन्यु मा, लटुली फूली गैनी, जख मेरी माया रौंदी, बंसुल्या, ज्यू त यन बोन्नू च, दगड़ू और अदानु की माया जैसे गीतों की टीका बेहद सारगर्भित ढंग से की गई है। चौथे अध्याय में वेदना पर केंद्रित कैथैं खुज्याणी होली, दोफरा का बटोई, न हो कखि, क्यान सूखि होलो, स्या कनि ड्यूटि, टपकरा, दगड्या, निसाब, सदानि यनि दिन रैनी, ये लोला डांडाम, क्य कन्न तब, लगैदे मंडाण, को होलो, खांदी बगत और धरती कि बिपदा जैसे करुणा विरह वेदना संबंधित गीतों का भाव व्यंजित किया गया है। पांचवें अध्याय में पहाड़ की प्रमुख समस्या पलायन और उससे संबंधित गीतों का वर्गीकरण करते हुए लड़ीक, दिल्ली वला दयूर, डाम का खातिर, उकाल उंदार, जांदि मौऊ, बीज छोऊं, गाणी, चौमास, चिट्ठी देणी रैई, मैं घौर छोड्यावा, बोल्यू माना, निभैल्या, मेरा गौमा, भाबर नि जौंला की मीमांसा है। छ्ठे अध्याय में देर होली सबेर होली, मुट्ठ बोटीक रख, डाल्यूं न काटा, हिट भुला हत्तखुटा हला, भोल जब फिर रात खुलली, झ्यूंतु तेरी जमादरी और नि होणी भली जैसे आह्वान गीतों को रखा गया है। सातवें अध्याय में जिदेरी घसेरी, तेरा बाना, रौकेंड रोल, देरादूण वाला हूं, खैरी का अंधेरों मा, घंघतोल, ढब, ह्वेगी तेरा मनै की, बैम (वहम) जैसे गीत व्याख्यायित किए हैं। अंतिम और आठवें अध्याय में लोरी, मनुहार, आशीष और नसीहत के गीत हैं। इनमें बाला स्ये जादी, स्येजा बाला हे, बेटुली, बिजि जादी, जी रै जागी रै, सुद्दी नि बोन्नू, रगरै न हो!, सैर बजारूमा, डरेबरी कलेंडरीमा जैसे गीतों का मृदुल शब्दों में भाष्य है। ये सभी गीत हर कालखंड में गाए जायेंगे, कदाचित इन्हें इसी कारण चयनित भी किया गया है। इस तरह यह एक सौ एक की संख्या दक्षिणा है या श्रद्धा भेंट यह तो श्री रयाल ही बेहतर बता सकते हैं किंतु इस ग्रंथ से लोकभाषा के विकास का एक द्वार भी खुलता है। जो लोग गढ़वाली के कठिन शब्दों को देखते हुए उन पर विमर्श करने से संकोच करते हैं, उनके लिए यह प्रवेशिका भी है और पाणिनी का व्याकरण भी। प्रवास में रह रहे लोग हों या साहित्य में शोध कर रहे शोधार्थी, गांव की बहू बेटियां, दाना सयाना, नौकरीपेशा या विद्यार्थी या कोई और, हर किसी के लिए ललित मोहन रयाल ने नवनीत परोसा है। श्री रयाल का गहन अध्ययन दर्शाता है कि उन्होंने श्री नेगी की रचनाओं की विषय वस्तु की विराटता को पिछली सदी के दो बड़े महान गायकों भूपेन हजारिका और बॉब डिलन के समकक्ष पाते हैं। इन तीनों ने अपने गीत, संगीत और गायन से सिर्फ लोकरंजन नहीं किया बल्कि तीनों अपने अपने समाज के प्रतिनिधि स्वर बने हैं। इस लिहाज से अब यह हमारे समाज पर निर्भर करता है कि वे इस पुस्तक से अपना हिस्सा किस तरह बटोरते हैं। निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि ललित मोहन रयाल ने शानदार और लाजवाब कार्य कर न सिर्फ अपनी विद्वता सिद्ध की है बल्कि अपने लोक की बड़ी सेवा भी की है। पुस्तक न सिर्फ पठनीय है बल्कि संग्रहणीय भी है। यह सिर्फ बुक सेल्फ की शोभा बढ़ाने की वस्तु नहीं बल्कि अपनी माटी की खुशबू को महसूस कर उसे आत्मसात करने का माध्यम है।